योग में स्थित
होकर कर्म करो। जिससे कर्म की सिद्धि और असिद्धि में समान विचार रहे। ऐसा न कि
कर्म करने के पश्चात उनके अच्छे या बुरे फल प्राप्त होने से अथवा सफल या असफल होने
के हर्ष या विषाद से चित्त में चंचलता हो, या कर्म के फल की प्राप्ति में विलम्ब
देख कर उन्हें असिद्ध अर्थात फलीभूत न होना समझ कर चित्त में उद्विग्नता हो, अतः
इन दोनों परिस्थितियों में स्थिर चित्त रहना, योग में स्थित होकर कर्म से ही सम्भवहै |
No comments:
Post a Comment